Session 2 विडंबना के तीन स्तर

विडंबना के तीन स्तर

जिस प्रकार हम मिलावटी भोजन व्यस्तता और अज्ञानता के कारण जीवनपर्यन्त आत्मसात करते जाते हैं, ठीक उसी भांति मानो हम भाषा की अशुद्धता भी अपने व्यक्तित्व में समेटते चले जाते हैं | इस विडम्बना के तीन स्तर –

  • जिस प्रकार हमने ऊपर के उदाहरणों में देखा; हम विदेशी मूल के शब्दों का उपयोग कर लेते हैं और हमारा ध्यान ही नहीं जाता – ना तो सुनने वालों की ओर से टोक, ना बोलने वालों में झेंप; काम चल रहा है | यह है पहला स्तर – अशुद्धि सहज ? हाँ | अशुद्धि के प्रति सचेत ? ना |
  • दूसरा स्तर है संज्ञान होते हुए भी अशुद्धि को स्वीकार कर लेना; सहर्ष आत्मसात कर लेना | यह दर्शाता है कि भाषा में आई अशुद्धि के कारण संस्कृति, सामुदायिक पहिचान और भविष्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के लिए अभी-भी अनभिज्ञता बनी हुई है, यह अदूरदर्शिता का संकेत है | इस स्तर को सामाजिक अकर्मण्यता भी कहा जा सकता है क्योंकि अशुद्धि दूर करने के लिए कोई सुधारात्मक प्रयास नहीं हो रहे हैं |
  • तीसरा स्तर मात्र भाषा की अशुद्धि नहीं, उपनिवेशवाद की चरम सीमा होती है | मनोवैज्ञानिक उपनिवेशवाद – जब हम आक्रांता को स्वयं से अधिक श्रेयस्कर मानने लगें, उनका (अनावश्यक) महिमामण्डन-गुणगान करने लगें; उनकी भांति बनने के प्रयास करने लगें | विडम्बना ही है, किन्तु ऐसा होता है – पॉलो फ्रेरे की पुस्तक ‘पेडगोगी ऑफ द ऑप्रेस्ड में इस विषय पर विस्तार से चर्चा की गई है | मनोवैज्ञानिक उपनिवेशवाद, भौगोलिक या राजनैतिक उपनिवेश “समाप्त” होने के बाद भी अनेक दशकों-शताब्दियों तक, अनेक माध्यमों से बनाए रखा जा सकता है – मुखौटा कोई भी हो – शिक्षा, मनोरंजन, भाषा, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, राजनीति, धर्म, मीडिया, विज्ञापन, “अंतर्राष्ट्रीय मानदण्ड”, “समाज-सुधार”, और, आश्चर्यचकित ना हों – पहनावे के माध्यम से भी [5] !

The Plight of Hindus Under the Nizam’s Regime: इस आलेख में बताया गया है कि किस प्रकार 1939 में ओस्मानिया यूनिवर्सिटी ने हिन्दू विद्यार्थियों का धोती पहनना वर्जित कर दिया था | आलेख का लिंक https://www.dharmadispatch.in/history/the-plight-of-hindus-under-the-nizams-regime

यदि मनोरंजन (गीत, चलचित्र) के माध्यम से संस्कृति का किस प्रकार हनन किया जाता है, इसके लिए एक उदाहरण मात्र देखना हो तो यूट्यूब पर “आसमान से आया फरिश्ता गीत देख लें | इसी प्रकार के सैकड़ों नहीं, हजारों प्रकरण हैं | मनोरंजन और “क्रिएटिविटी” के नाम पर यह दर्शकों पर क्या छाप छोड़ता हैं ? अभद्र नग्नता और अव्यवहारिक फेंटेसी; और इसके दूरगामी प्रभाव – जीवन-मूल्यों का पतन; संस्कृति का पतन | यह सामाजिक-सामूहिक व्यथा का विषय होना चाहिए | मनोविज्ञान के ज्ञान का भरपूर दोहन और दुरुपयोग दशकों, सदियों से विभिन्न रूपों में हो रहा है – निरंतर !

इन सब माध्यमों में समन्वय लाकर एक ऐसा वातावरण बना दिया जाता है जहाँ ‘डिफ़ॉल्ट’ में जनधारणा यही हो कि “उर्दू तो बहुत तहज़ीब वाली जुबान है” | मैं ऐसा कदापि नहीं कह रहा कि उर्दू भाषा में कोई हीनता है | अवश्य ही उर्दू भाषा का परिवेश-विशेष में अपना सौंदर्य और सम्मान है; किन्तु इस आलेख में हम हिंदी के विषय में चर्चा कर रहे हैं |

यह सब पढ़कर-सोचकर ही घबराहट हो जाती है न (!) कि हम सब जाने-अनजाने अभी-भी मानो एक जाल में फँसे हुए हों – मनोवैज्ञानिक उपनिवेशवाद का जाल |

मनोवैज्ञानिक उपनिवेशवाद ! यह वर्त्तमान समय का विकराल खेल है जो शांत परन्तु उग्र अंतर्राष्ट्रीय-अंतर्सांस्कृतिक दबाव बनाने के लिए प्रणाली भी है और इस खेल का परिणाम भी |

आगामी चर्चा में – कोई भी भाषा ना तो एक ही व्यक्ति द्वारा विकसित की जाती है; और ना ही किसी एक व्यक्ति के प्रयास से शोधित की जा सकती है | रोमांचक हिंदी स्वस्पर्धा – यह मात्र छोटी-सी पहल है | (नामांकन आवश्यक)

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आगामी सत्रों में

स्वस्पर्धा का प्रारूप

स्पर्धा १-२-३ में

प्रत्येक स्पर्धा में बीस सरल, छोटे छोटे वाक्य होंगे जहाँ आपको रोमांचक सुधार लाना है |

आपको अपने रोमांचक सुधार को बोलकर रेकॉर्ड करके या लिखकर अपलोड करना है | अतः अपने उपकरण में एक ऐसा एप्लिकेशन उपयोग-प्रयोग करके देख लें | आगामी सत्रों में, विशेषकर सत्र 8-14 में दिए हुए सूचियों के साथ अभायस भी करते चलें |

सर्टिफिकेट –

उपरोक्त स्वस्पर्धा के मूल्यांकन के बाद आपको आपका प्रमाणपत्र उपलब्ध हो जाएगा, जिसे आप डाउनलोड कर सकते हैं |

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